काशी-तमिल संगमम 3.0: भारतीय सभ्यता का स्वर्णिम अध्याय


-संपतिया उइके,कैबिनेट मंत्री, मध्यप्रदेश 


सर्दी की हल्की ठंडक के बीच वाराणसी के गंगा घाटों पर रौनक अपने चरम पर है। सुबह की गंगा आरती के मंत्रोच्चार के साथ तमिलनाडु से आए श्रद्धालुओं का समूह अद्भुत दृश्य प्रस्तुत कर रहा है। वे हाथ जोड़े, हृदय से भाव-विभोर होकर भगवान विश्वनाथ का जयघोष कर रहे हैं। यह केवल एक यात्रा नहीं, बल्कि भारत की दो महान संस्कृतियों—उत्तर भारत की काशी और दक्षिण भारत की तमिल संस्कृति—का भव्य मिलन है।

काशी-तमिल संगमम 3.0 केवल एक सांस्कृतिक आयोजन नहीं , बल्कि भारत की गहरी जड़ों से जुड़ी एकता और अखंडता का जीवंत प्रमाण है। यह संगम उत्तर और दक्षिण की परंपराओं को एक-दूसरे से जोड़ने का प्रयास है। गंगा और गोदावरी की तरह, जो हजारों किलोमीटर दूर होते हुए भी भारत की सांस्कृतिक धरोहर को एक धागे में पिरोती हैं, उसी तरह यह आयोजन भी लोगों के दिलों को जोड़ रहा है।

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अपने संदेश में तीसरे काशी तमिल संगमम के आयोजन पर प्रसन्नता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि प्रयागराज में महाकुंभ के बीच में आयोजित होने के कारण यह अवसर और भी महत्वपूर्ण हो गया है। प्रधानमंत्री ने तमिलनाडु और काशी, कावेरी और गंगा के बीच के अटूट संबंध पर भी प्रकाश डाला, जो कई हजार साल पुराना है। पिछले दो संगमों के दौरान लोगों की दिल को छू लेने वाली भावनाओं और अनुभवों ने भारत की विविध संस्कृति की खूबसूरती के साथ-साथ लोगों के बीच मज़बूत संबंधों को भी दर्शाया।

श्री धर्मेंद्र प्रधान ने अपने संबोधन में पांड्य राजा पराक्रम पांडियन की एक तमिल कविता उद्धृत की: नीरेल्लम गंगे, नीलमेलम काशी ('नीरेल्लम गंगे, नीलमेलम कासी'), जिसका अर्थ है कि सभी जल गंगा की तरह पवित्र हैं, और भारत की हर भूमि काशी की तरह पूजनीय है। उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि दुनिया के सबसे पुराने शहरों में से एक और भारत की सांस्कृतिक राजधानी काशी सभ्यता की समृद्ध विरासत का प्रतीक है, जबकि तमिल संस्कृति का प्रतीक तमिलनाडु भारत के प्राचीन ज्ञान और साहित्यिक गौरव का हृदय है। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि कैसे तमिल लोगों ने अपनी संस्कृति और परंपराओं को दुनिया भर में फैलाया है, जहाँ भी वे गए हैं, वहाँ के जीवन को समृद्ध बनाया है।

दरअसल, काशी के पवित्र घाटों पर आयोजित काशी तमिल संगमम 3.0 वास्तव में गंगा और गोदावरी के मिलन जैसा अनुभव कराता है। गंगा घाटों पर जब तमिलनाडु और दक्षिण भारत के श्रद्धालु पहुंचते हैं, तो यह केवल एक यात्रा नहीं, बल्कि संस्कृतियों के अभूतपूर्व संगम का उत्सव बन जाता है। काशी तमिल संगमम 3.0 इस भावनात्मक और सांस्कृतिक एकता का सजीव उदाहरण है, जहां दक्षिण और उत्तर भारत की परंपराएं एक-दूसरे में समाहित होती नजर आती हैं।

संगमम 3.0 भारतीय परंपराओं, संस्कृतियों और जीवन मूल्यों का उत्सव है, जो विविधताओं के बीच राष्ट्रवाद की भावना को और प्रबल करता है। यह उत्तर और दक्षिण भारत के बीच सांस्कृतिक सेतु के रूप में कार्य कर रहा है। जब तमिलनाडु से यात्री वाराणसी रेलवे स्टेशन पर उतरते हैं, तो उनका स्वागत “हर हर महादेव“ के जयघोष से किया जाता है। ढोल-नगाड़ों की थाप, स्वस्तिवाचन और पुष्पवर्षा से हर यात्री स्वयं को विशिष्ट अनुभव करता है।

कांचीपुरम, जिसे संक्षेप में कांची कहा जाता है, तमिलनाडु का एक महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र है। यह क्षेत्र हिन्दू धर्म के प्राचीन तीर्थ स्थलों में से एक है और यहां कई ऐतिहासिक मंदिर स्थित हैं। कांची, जो पलार नदी के किनारे बसी है, न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि अपनी रेशमी साड़ियों के लिए भी प्रसिद्ध है।
काशी-तमिल संगमम 3.0 केवल कुछ दिनों का आयोजन नहीं, बल्कि यह सदियों से चली आ रही परंपराओं और आत्मीयता का प्रतीक है। यह एक भारत, श्रेष्ठ भारत की परिकल्पना को साकार करता है, जहाँ उत्तर और दक्षिण, पूर्व और पश्चिम मिलकर एक सांस्कृतिक धरोहर को आगे बढ़ाते हैं।


सदियों से तमिलनाडु के लोग काशी की यात्रा करते आए हैं। उनके लिए काशी केवल एक तीर्थ नहीं, बल्कि आध्यात्मिक आकर्षण का केंद्र है। भगवान विश्वनाथ, मां गंगा और देवी विशालाक्षी सदियों से तमिल भक्तों को अपनी ओर आकर्षित करती रही हैं। आदि शंकराचार्य के काशी आगमन और उनके द्वारा अद्वैत वेदांत के प्रचार के बाद, तमिल संतों का काशी से लगाव और गहरा हो गया। इस पवित्र नगरी ने अनेक संतों और महात्माओं को आध्यात्मिक ऊर्जा प्रदान की है, जिसका प्रभाव आज भी तमिल समाज में देखा जा सकता है।

काशी का तेलुगु संस्कृति से भी गहरा नाता है। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना से हर वर्ष बड़ी संख्या में श्रद्धालु काशी आते हैं। तेलुगु संतों और आचार्यों ने भी इस नगरी को विशेष रूप से गौरवान्वित किया है। तेलुगु संत तेलंगस्वामी, जिनका जन्म विजयनगरम में हुआ था, को स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस ने काशी का “जीवंत शिव“ कहा था। इसके अलावा, जिद्दू कृष्णमूर्ति और अन्य महान संतों को आज भी श्रद्धा के साथ याद किया जाता है।

काशी और तेलुगु संस्कृति का संबंध साहित्य और आध्यात्मिक परंपराओं में भी स्पष्ट रूप से झलकता है। आंध्र प्रदेश के वेमुलावाड़ा तीर्थ को “दक्षिण का काशी“ कहा जाता है, और यहां की मंदिर परंपराओं में “काशी दारम“ (विशेष काला सूत्र) का प्रचलन आज भी है। इसी प्रकार, तेलुगु साहित्य में “काशीखंडम“ जैसे ग्रंथ काशी की महिमा का बखान करते हैं।

 

रिपोर्टर

  • Dr. Rajesh Kumar
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